प्रबोधन

बहन जी के श्री बाबूजी महराज से मिलने से पूर्व एक अध् भुत घटना घटी| जनवरी 1948 की एक संध्या बेला में जब वे आकाश की तरफ लगातार देख रही थी , तब उन्होंने अचानक देखा कि आकाश में एकाएक प्रकाश फैल गई और उस प्रकाश के मध्य भगवान श्री रामचन्द जी की मूर्ति दिखाई पड़ी | थोडे ही समय में श्री राम की मूर्ति विलीन हो गई और श्री कृष्ण कि मूर्ति ने उसका स्थान ले लिया | कुछ ही अन्तराल पर वह मूर्ति भी विलीन हो गई और ओंकार (ॐ) दुष्ठिगत होने लगा ! देखते ही देखते ॐ भी विलीन हो गया और तब बहन जी ने देखा कि एक दुर्बल सी महत काया छोटी सी गलमूँछोदार दाढ़ी, दुबला किन्तु तेजोमय भव्य चेहरा , उस प्रकाश के मध्य देदीप्यमान था | उसे वे देखती रह गई | वह मूर्ति अटल थी, न जाने कब तक ! बहन जी उस द्रुश्यको देखकर मानो खो गई और जब होश आया तो आकाश अपने सामान्य रूप में था | उस समय से बहन जी का ह्रदय उस तेजोमय दिव्य विभूति कि प्रतीक्षा में लग गया | उसी रात उन्होंने लगभग एक बजे एक स्वप्न देखा कि वह अपने परिवार के साथ काली माँ के विशाल मंदिर के मुख्यद्वार पर खडी है | द्वार के चौखट पर खेत लंबी दाढ़ी युकत एक महापुरुष शान्त मुद्रा में खड़े थे | मंदिर में प्रवेश पाने के लिए उन महापुरुष ने बहन कस्तूरी को एक तलवार देते हुए कहा – ” इस तलवार से अपना सिर काटकर मेरे हाथ में दे दो और मंदिर में प्रवेश कर जाओ , यही नियम है “| बहन जी ने बिना विलम्ब किये उन महापुरुष से तलवार लेकर, अपना सिर काटकर महापुरुष के हाथ में रख दिया और मंदिर में प्रवेश कर गई, किन्तु वहां कोई मूर्ति नहीं थी | वहाँ तो एक अलौकिक वातावरण था और बहनजी की अवस्था भी दिव्य थी.| स्वप्न टूट गया किंतु बहनजी का स्मरण लगातार उस दृश्य को दोहराता रहा | अगले दिन ३ जनवरी 1948 उनके लिए अचरज भरा दिन था जब श्री बाबूजी महाराज उनके घर पधारे | वे भौचक थी जब उन्होंने श्री बाबूजी महाराज को प्रत्यक्ष देखा क्यों कि ये वही दिव्य विभूति थे जिनको बहनजी ने पहले दिन देखा था | इस तरह एक सदगुरु को पाने की उनकी प्रतीक्षा पूरी हुई | वह बोल उठी, अरे ! बाबूजी ! ये आप है | मै कितने समय से आपकी प्रतीक्षा कर रही थी | बाबूजी भाव विभोर हो उठे और कहा बिटिया हम भी तो तुम्हे ढूंड रहे थे , और तुम हमें आज मिली | बहन जी और श्री बाबूजी के प्रथम मिलन का संवाद इस प्रकार शुरू हुआ | सामान्यतः शिष्य गुरु के पास जाता है, परन्तु यहाँ एक विशेष शिष्य के द्वार पर गुरूजी स्वयं पधारे | इस तरह बहन कस्तूरी की आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ हुई | बहन जी अपने अनुभव श्री बाबूजी महाराज को पत्र के द्वारा निवेदन करती थी और श्री बाबूजी महाराज भी उनकी आध्यात्मिक यात्रा में उनका यथोचित मार्ग दर्शन करते रहे | बहनजी और बाबूजी के बीच हुए पत्राचार को मानव मात्र के हित के लिए अनन्त यात्रा नामक पुस्तक के रूप में पाँच भागों में प्रकाशित किया गया है! इसके अतिरिक्त्त उन्होंने कई अन्य पुस्तकें भी लिखी है | ये सारी पुस्तके उनकी अटूट साधना और श्री बाबूजी महाराज की कृपा से मिले अध्यात्मिक अनुभवों पर आधारित है|